RUMORED BUZZ ON NAAT LYRICS IN URDU PDF DOWNLOAD

Rumored Buzz on naat lyrics in urdu pdf download

Rumored Buzz on naat lyrics in urdu pdf download

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naat lyrics in english writing

सब्ज़-गुंबद की उन बहारों को दिल हमारे सलाम कहते हैं

मिटा दो जालियों पर निगाहें जमी हैं ग़ौस-उल-आ'ज़म हो, ग़ौस-उल-वरा हो नूर हो नूर-ए-सल्ले-'अला हो क्या बयाँ आप का मर्तबा हो ! दस्त-गीर और मुश्किल-कुशा हो आज दीदार अपना करा दो जालियों पर निगाहें जमी हैं फ़ासलों को ख़ुदा-रा ! मिटा दो जालियों पर निगाहें जमी हैं सुन रहे हैं वो फ़रियाद मेरी ख़ाक होगी

आप की गर्द-ए-राह को, आक़ा ! चाँद-तारे सलाम कहते हैं

वो शहर-ए-मोहब्बत जहाँ मुस्तफ़ा हैं वहीं घर बनाने को दिल चाहता है वो सोने से कंकर, वो चाँदी सी मिट्टी नज़र में बसाने को दिल चाहता है वो शहर-ए-मोहब्बत जहाँ मुस्तफ़ा हैं वहीं घर बनाने को दिल चाहता है जो पूछा नबी ने कि कुछ घर भी छोड़ा तो सिद्दीक़-ए-अकबर के होंटों पे आया वहाँ माल-ओ-दौलत की क्या है हक़ीक़त जहाँ जाँ लुटाने को दिल चाहता है वो शहर-ए-मोहब्बत जहाँ मुस्तफ़ा हैं वहीं घर बनाने को दिल चाहता है जिहाद-ए-मोहब्बत की आवाज़ गूँजी कहा हन्ज़ला ने ये दुल्हन से अपनी इजाज़त अगर हो तो जाम-ए-शहादत लबों से लगाने को दिल चाहता है वो शहर-ए-मोहब्बत जहाँ मुस्तफ़ा हैं वहीं घर बनाने को दिल चाहता है सितारों से ये चाँद कहता है हर-दम तुम्हें क्या बताऊँ वो टुकड़ों का 'आलम इशारे में आक़ा के इतना मज़ा था कि फिर टूट जाने को दिल चाहता है वो शहर-ए-मोहब्बत जहाँ मुस्तफ़ा हैं वहीं घर बनाने को दिल चाहता है वो नन्हा सा असग़र, वो एड़ी रगड़ कर यही कह रहा था वो ख़ैमे में रो कर ऐ बाबा !

तुझे जाना जाता है दोनों आलमों का बादशाह

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फ़ासलों को ख़ुदा-रा ! मिटा दो जालियों पर निगाहें जमी हैं अपना जल्वा इसी में दिखा दो जालियों पर निगाहें जमी हैं फ़ासलों को ख़ुदा-रा ! मिटा दो रुख़ से पर्दा अब अपने हटा दो अपना जल्वा इसी में दिखा दो जालियों पर निगाहें जमी हैं फ़ासलों को ख़ुदा-रा ! मिटा दो जालियों पर निगाहें जमी हैं एक मुजरिम सियाह-कार हूँ मैं हर ख़ता का सज़ा-वार हूँ मैं मेरे चारों तरफ़ है अँधेरा रौशनी का तलबग़ार हूँ मैं इक दिया ही समझ कर जला दो जालियों पर निगाहें जमी हैं फ़ासलों को ख़ुदा-रा ! मिटा दो जालियों पर निगाहें जमी हैं वज्द में आएगा सारा 'आलम हम पुकारेंगे, या ग़ौस-ए-आ'ज़म वो निकल आएँगे जालियों से और क़दमों में गिर जाएँगे हम फिर कहेंगे कि बिगड़ी बना दो जालियों पर निगाहें जमी हैं फ़ासलों को ख़ुदा-रा !

क्या बताऊँ कि क्या मदीना है बस मेरा मुद्द'आ मदीना है क्या बताऊँ कि क्या मदीना है उठ के जाऊँ कहाँ मदीने से क्या कोई दूसरा मदीना है क्या बताऊँ कि क्या मदीना है उस की आँखों का नूर तो देखो जिस का देखा हुवा मदीना है क्या बताऊँ कि क्या मदीना है दिल में अब कोई आरज़ू ही नहीं या मुहम्मद है या मदीना है क्या बताऊँ कि क्या मदीना है दुनिया वाले तो दर्द देते हैं ज़ख़्मी दिल की दवा मदीना है क्या बताऊँ कि क्या मदीना है दुनिया वाले तो दर्द देते हैं दर्द-ए-दिल की दवा मदीना है क्या बताऊँ कि क्या मदीना है मेरे आक़ा !

The origins of Naat were being intended to generally be from that time. Although it’s actually difficult to trace again the authenticity. Naat Sharif is often published in other ways. Nonetheless, compared to other tributes and qasida, their distinctive attribute will be the sincere and personal fashion where They may be published.

या हुसैन इब्न-ए-'अली ! या हुसैन इब्न-ए-'अली !

दाफ़े'-ए़-जुम्ला-बला ! तुम पे करोड़ों दुरूद

क्या बताऊँ कि क्या मदीना है बस मेरा मुद्द'आ मदीना है क्या बताऊँ कि क्या मदीना है उठ के जाऊँ कहाँ मदीने से क्या कोई दूसरा मदीना है क्या बताऊँ कि क्या मदीना है उस की आँखों का नूर तो देखो जिस का देखा हुवा मदीना है क्या बताऊँ कि क्या मदीना है दिल में अब कोई आरज़ू ही नहीं या मुहम्मद है या मदीना है क्या बताऊँ कि क्या मदीना है दुनिया वाले तो दर्द देते हैं ज़ख़्मी दिल की दवा मदीना है क्या बताऊँ कि क्या मदीना है दुनिया वाले तो दर्द देते हैं दर्द-ए-दिल की दवा मदीना है क्या बताऊँ कि क्या मदीना है मेरे आक़ा !

ग़ौस-उल-आ'ज़म दस्त-गीर ! हर फ़िक्र से तुम हो कर आज़ाद चले जाओ ले कर के लबों पर तुम फ़रियाद चले जाओ मिलना है अगर तुम को वलियों के शहंशा से ख़्वाजा से इजाज़त लो, बग़दाद चले जाओ अल-मदद, पीरान-ए-पीर ! ग़ौस-उल-आ'ज़म दस्त-गीर ! अल-मदद, पीरान-ए-पीर ! ग़ौस-उल-आ'ज़म दस्त-गीर ! ग़ौर कीजे कि निगाह-ए-ग़ौस का क्या हाल है है क़ुतुब कोई, वली कोई, कोई अब्दाल है दूर है जो ग़ौस से, बद-बख़्त है, बद-हाल है जो दीवाना ग़ौस का है सब में बे-मिसाल है दीन में ख़ुश-हाल है, दुनिया में माला-माल है अल-मदद, पीरान-ए-पीर ! ग़ौस-उल-आ'ज़म द

याद आ गईं जब अपनी ख़ताएँ, अश्कों में ढलने लगी इल्तिजाएँ

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